काव्य की भक्ति धारा में ब्रज भाषा के एक उपासक कवि हुए हैं, संत मतिराम. उन्होंने अपने एक दोहे में बेहद ही सरल शिव आराधना का वर्णन किया है. वह लिखते हैं
मो मन मेरी बुद्धि लै, करि हर कौं अनुकूल,
लै त्रिलोक की साहिबी, दै धतूर कौ फूल॥
‘हे मेरे मन, मेरी बुद्धि को लेकर भगवान शंकर के अनुकूल बना दे,यानी मुझे भगवान शंकर का भक्त बना दे, क्योंकि उन पर भक्त केवल धतूरे के पुष्प चढ़ाकर ही तीनों लोकों का आधिपत्य प्राप्त कर लेता है. भाव यह कि भगवान शंकर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं.’
शिव का यह स्वरूप वेदों में वर्णित उनके रुद्र वाले भयंकर स्वरूप से बहुत अलग है. पुराण कथाओं में जब त्रिदेवों की महिमा गाई गई तो विष्णुजी के साथ-साथ शिवजी की महानता और दयालुता की कथाएं समानांतर क्रम में चलती रही हैं. ये जरूर रहा कि इसी देश में शैव और वैष्णव मत अलग-अलग रहे. इसमें भी शैव, शिवजी को परमसत्ता बताते हैं तो वैष्णव विष्णुजी को परब्रह्म बताकर श्रेष्ठ कहते हैं, लेकिन पुराण कथाएं दोनों को एक-दूसरे का पूरक बताती हैं.
रामायण और महाभारत में भी हैं शिव
जहां एक ओर विष्णुपुराण में भगवान विष्णु के दशावतारों के साथ-साथ 24 अवतारों का वर्णन होता है तो ठीक इसके ही समानांतर शिव कथाएं भी चलती रहती हैं और विष्णुजी के हर अवतार में शिवजी की मौजूदगी दिखाई देती है. बल्कि कई कहानियों का वर्णन ऐसे होता है कि शिव और विष्णु एक ही हैं और आश्चर्यजनक ढंग से इन्हें हरिहर कहा जाता है. इसमें हरि विष्णु जी हैं और हर शिवजी हैं. बिहार के सोनपुर में स्थित हरिहरनाथ मंदिर में शिव और विष्णु दोनों एकसाथ ही विराजमान है.
त्रेतायुग में गंगा नदी को विष्णुजी के चरणों से निकला बताया जाता है, जिसे शिवजी अपने शीष पर धारण करते हैं. इसी तरह भस्मासुर नाम का एक राक्षस जब शिवजी को ही भस्म करने बढ़ता है तो विष्णुजी मोहिनी अवतार लेकर उन्हें बचाते हैं. रामायण में श्रीराम शिवधनुष तोड़कर सीता से विवाह करते हैं तो वहीं रावण से युद्ध में शिवजी के अंश के रूप में हनुमान उनकी सहायता करते हैं. इसके अलावा खुद श्रीराम रामेश्वरम में शिवलिंग बनाकर उनका पूजन करते हैं, जिसे शिवजी ने अपने ज्योतिर्लिंग रूप में स्थापित करते हैं.
त्रेतायुग में ही शिवजी के एक और शिवलिंग की कथा सामने आती है, जिसे उनका सबसे महत्वपूर्ण आत्मलिंग कहा गया है. रावण भले ही राक्षस था, लेकिन कुल से ब्राह्मण था और बड़ा ही विद्वान था. उसने शिवजी के निराकार स्वरूप को समझा और इसी रूप में उन्हें लंका ले जाना चाहता था. दरअसल रावण को विश्व विजयी बनने की जिद थी, इसके लिए उसे सत्व, रज और तम तीनों पर अधिकार चाहिए था और लंका में वह तीनों तत्वों को स्थापित करना चाहता था. रावण ये रहस्य जानता था कि त्रिपुर का अंत करने वाले महादेव शिव तीनों ही गुणों के अधिकारी हैं, इसलिए अगर सिर्फ उन्हें ही लंका ले जाया जाए तो फिर उसे विश्व विजयी बनने से कोई नहीं रोक सकता.
अपने घमंड में चूर रावण पहले तो शिवजी को कैलाश सहित उठाकर लाने का प्रयास करता है, लेकिन शिव सिर्फ एक अंगूठे से कैलाश को दबा देते हैं इससे रावण के हाथ कैलाश के नीचे ही दब जाते हैं. तब वह इसी अवस्था में पीड़ा सहते हुए शिव तांडव स्त्रोत की रचना करता है और शिव स्तुति करता है. महादेव शिव इससे प्रसन्न होते हैं और रावण को अपना आत्म स्वरूप लिंग देते हैं. इसके साथ ही शिवजी ये शर्त भी लगाते हैं कि, इसे तुम जिस जगह धरातल पर रखोगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा. रावण को आत्मलिंग ले जाते देख देवताओं में हड़कंप मच जाता है. क्योंकि अगर रावण ने शिवलिंग को लंका में स्थापित कर दिया होता तो वह अजेय हो जाता.
इस संकट का निवारण गणेश जी ने किया जो कि खुद अपने पिता महादेव को लंका में स्थापित नहीं होने देना चाहते थे. उन्होंने एक बाल ग्वाले का वेश बनाया और उसी मार्ग पर जानवरों को चराने लगे, जिस रास्ते से रावण लंका के लिए जाने वाला था. थोड़ी देर बाद रावण वहां पहुंचा तो तबतक शाम हो चली थी. अब यहां से दो कथाएं प्रचलित हैं. एक यह कि रावण हर शाम को संध्या वंदन करता था और इसका ये नियम कभी भंग नहीं हुआ था, दूसरा ये कि रावण को लघुशंका लगी. खैर, दोनों ही स्थितियों में रावण को चाहिए था कि वह शिवलिंग को थोड़ी देर किसी को दे दे, क्योंकि वह शिवलिंग को रख नहीं सकता था.
रावण को वही ग्वाला (गणेश जी) बालक दिखा तो रावण ने उसे शिवलिंग पकड़ने को कहा, पहले तो बालक ने बहुत मना किया, लेकिन रावण की बहुत विनती पर मान गया. अब जैसे ही रावण वहां से हटा, ग्वाले बने गणेशजी ने शिवलिंग को वहीं रखकर स्थापित कर दिया. इस तरह रावण चाहकर भी महादेव को लंका नहीं ले जा सका. ये स्थान आज झारखंड में बाबा वैद्यनाथ धाम से मशहूर है और शिवजी के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है. हालांकि एक मत है कि महाराष्ट्र के परली जिले में स्थित धाम वास्तविक वैद्यनाथ धाम है. परली ऋषि मार्कंडेय की तपस्थली रहा है.
रामायण में हनुमान को शिवजी का ही रुद्रवतार कहा गया है. इस मत को इस तथ्य से भी अधिक बल मिलता है कि शिवजी की ही तरह हनुमान भी विराट स्वरूप में पंचमुखी हनुमान कहलाते हैं और उनके भी पांच मुख हैं. कहते हैं कि भस्मासुर के अंत के लिए जब विष्णुजी ने मोहिनी रूप लिया था, तो उसकी सुंदरता को देखकर शिव मोहित हो गई थे और उनका वीर्यपात हो गया था. इसी समय वानरराज केसरी की पत्नी अंजना शिवजी जैसा पुत्र पाने के लिए तपस्या कर रही थीं. ऋषियों ने शिवजी की ज्योति को अंजना के गर्भ में स्थापित किया और फिर हनुमान जी का जन्म हुआ. इस तरह रामकथा में शिवजी की मौजूदगी एक प्रमुख पात्र के रूप में रही है.
महाभारत में शिवजी की मौजूदगी
इसी तरह महाभारत में भी कई प्रसंगों में शिव की मौजूदगी दिखाई देती है. शिव ही अर्जुन को अपना दिव्य पाशुपतास्त्र देते हैं, लेकिन इसके पहले वह खुद किरात (एक शिकारी) बनकर अर्जुन की योग्यता की परीक्षा लेते हैं. महाभारत के सभा पर्व, वन पर्व और आदि पर्व में पूरी एक किरात जाति का जिक्र है, जो कि संभवतः हिमालय की तलहटी में रहते थे तो वहीं, वन पर्व वाले हिस्से में अर्जुन का किरात रूपी शिव से युद्ध का वर्णन है. महाकवि भारवि ने संस्कृत साहित्य में इसी युद्ध को लेकर ‘किरातार्जुनीयम’ लिख दिया है.
अर्जुन और किरात रूपी शिवजी का युद्ध
कथा कुछ ऐसी है कि, बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञात वास पाए पांडवों को श्रीकृष्ण ने अलग-अलग कार्य सौंपे थे. उन्होंने अर्जुन को दिव्यास्त्रों को इकट्ठा करने भेजा था. इसमें सबसे जरूरी पाशुपतास्त्र था जो कि शिवजी के ही पास था. इसलिए अर्जुन उनकी तपस्या करने लगा. उधर, महादेव शिव ने अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए किरात (शिकारी) का वेश धारण किया और वहां पहुंच गए, जहां अर्जुन तपस्या कर रहा था. उसी समय मूकासुर नाम का एक दैत्य जंगली सूअर बनकर उस नगर में आतंक मचा रहा था. उसके उत्पात से ऋषि-मुनियों के आश्रमों में कोलाहल मच गया.
इससे अर्जुन का ध्यान भंग हो गया. विकराल सूअर को उत्पात मचाते देखकर उसने धनुष उठाया और बाण चला दिया, लेकिन अर्जुन ने देखा कि सूअर के शरीर में दो तीर एकसाथ आ घुसे थे. इधर-उधर नजर फिराने पर वही किरात थोड़ी दूर पर धनुष ताने खड़ा था. सूअर को किसने मारा, इस बात पर अर्जुन और किरात बहस करने लगे. अहंकार में अर्जुन ने खुद को श्रेष्ठ गुरु का शिष्य और श्रेष्ठ कुल का पुत्र बताया. इसके बाद शिवजी और अर्जुन में युद्ध छिड़ गया. अर्जुन के सभी बाणों को किरात ने काट डाला लेकिन किरात को खरोंच तक नहीं लगी.
अर्जुन ने किरात पर तलवार फेंकी लेकिन वह टूट गई. निहत्थे अर्जुन ने एक विशाल पेड़ उखाड़ कर किरात पर फेंका, लेकिन किरात के शरीर से टकराते ही पेड़ तिनके की भांति टूटकर बिखर गया. इसके बाद किरात ने अर्जुन को उठाकर दूर फेंक दिया. शिवजी का स्पर्श पाते ही अर्जुन सोचने लगा कि मैं तो शिवजी की तपस्या करने आया था और ये कहां युद्ध में उलझ गया. ऐसा सोचते ही अर्जुन ने रेत से शिवलिंग बनाया और पूजा करने लगा. इसी बीच किरात ने उसे फिर ललकारा. अर्जुन ने इस बार जैसे ही किरात को देखा तो अवाक रह गया, क्योंकि जो फूलों की माला अर्जुन ने शिवलिंग पर चढ़ाई थी, वही किरात के गले में दिख रही थी.यह देखकर अर्जुन को समझ में आ गया कि किरात के रूप में कोई और नहीं स्वयं भगवान शंकर हैं.
अर्जुन किरात के चरणों में गिर पड़े और उसने क्षमा मांगी. तब शिवजी अपने असली रूप में प्रकट हुए. अर्जुन ने वहीं शिव-पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया. देवाधिदेव शिव ने अर्जुन के भक्ति और साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की और वरदान स्वरुप अभेद्य पाशुपत अस्त्र दिया और युद्ध में विजय होने का वरदान भी दिया. महाभारत के बिल्कुल अंतिम में भी शिवजी की मौजूदगी तब दिखाई देती है, जब पांडव सबकुछ समाप्त होने के बाद स्वर्ग की ओर बढ़ने लगते हैं. इस कथा का जिक्र महाभारत के मौसुल पर्व में है. श्रीकृष्ण के देह त्याग के बाद पांडवों का धरती से मन उचट जाता है. वह अपना सारा राज्य परीक्षित को सौंप देते हैं और फिर संन्यास लेकर स्वर्ग की खोज में बढ़ते हैं.
लेकिन, मुक्ति का मार्ग तो सिर्फ शिवजी ही बता सकते थे, लेकिन महाभारत के रण और भयंकर रक्तपात के कारण शिवजी पांडवों को स्वर्ग का अधिकारी नहीं मानते थे. इसलिए वह लुप्त हो गए. शिवजी के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले, इसके बाद वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे. भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे केदार क्षेत्र में चले गए. जब पांडव भी वहां पहुंचे तो शिवजी बैल का रूप बनाकर भागने लगे, लेकिन भीम ने उन्हें पहचान लिया. भीम ने दो पर्वतों पर अपने पैर फैला दिए, सामान्य गाय-बैल तो उनके पैरों के बीच से निकल गए, लेकिन शिवरूप बैल पैरों के बीच से नहीं निकलना चाहते थे. तब भीम उनके पैर पकड़ने के लिए झटके से कूदे लेकिन शिव धरती में धंसने लगे. तब भीम ने बैल की कूबड़ पकड़ ली.
पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर शिवजी प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन देकर पाप मुक्त कर दिया. युधिष्ठिर ने केदारनाथ कहकर उनकी आरधना की. उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ. अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है. शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए. इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है. यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं.
अश्वत्थामा और सांब भी थे शिव अवतार
शिवजी के एकादश अवतारों में महाभारत का प्रमुख पात्र अश्वत्थामा भी आता है, क्योंकि उसे मिला अमरता का श्राप इतना भयंकर था कि उसे कोई झेल ही नहीं सकता, इसलिए शिवजी ने खुद उस अंश में अवतार लिया था ताकि मानवता को इस बात की प्रेरणा भी दी जा सके कि दुश्मनी और लालच में इंसानी दिमाग किस हदतक गिर सकता है. कृष्ण का पुत्र सांब भी रुद्र का ही अवतार बताया जाता है, क्योंकि सांब की ही वजह से यदुवंश का खात्मा हुआ था और शिव संहार के देवता हैं. शिव बताते हैं कि जब विकास अपने चरम पर पहुंचकर विनाश करने लगता है तो फिर वह उसका संहार करके फिर से सृजन के लिए जमीन तैयार करते हैं.
यही वजह है कि अगर विष्णुजी पुराण पुरुष हैं तो शिव कालपुरुष हैं. वह इसीलिए महाकाल कहलाते हैं. वह मृत्यु नहीं मोक्ष देते हैं और उनकी तीसरी आंख सिर्फ विनाश नहीं बल्कि जागृति का प्रतीक है. महामृत्युंजय मंत्र भी यही कहता है.
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
हम तीन नेत्रों वाले उसे तत्पुरुष की वास्तविकता का चिन्तन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है. हम जिन बंधनों में उलझे हुए हैं, ककड़ी की तरह हम इस बंधन वाले तने से अलग होकर मोक्ष धारण करें, इस बंधन में बार-बार बांधने वाली मृत्यु का भय छूटे, हम अमरत्व को समझें और इसके आनंद से वंचित न हों. शिव से उत्पन्न हम शिव में मिल जाएं, शिवोऽहम् शिवॊऽहम् . महाशिवरात्रि की शुभकामनाएं.
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