चंदा मामा दूर के, लड्डू मोतीचूर के,
आप खाएं थाली में, मुन्ने को दें प्याली में
प्याली गई टूट, मुन्ना गया रूठ…
नई प्याली लाएंगे, मुन्ने को मनाएंगे
पता नहीं कितने दशकों, सदियों या फिर न जाने समय के कितने फेर पहले से माताएं, अपने कलेजे के टुकड़ों को ऐसे गाने गाकर सुलाती आ रही हैं. बिना किसी वाद्ययंत्र, राग और सुर-लय ताल से परे ये छोटे-छोटे गाने मांओं के खुद के उन्मुक्त कंठ से निकली सबसे नैसर्गिक, सबसे प्राकृतिक असली सुरलहरी हैं. ये महज गीत नहीं है, अपनी संतान के लिए मां के गले से बह आया ममता का सोता है. रात का समय है, नवजात सो नहीं रहा है, वह परेशान है, डरा हुआ है और रो रहा है. उसकी इन्हीं परेशानियों का हल है मां का गाया ये सुंदर गीत, जिसे लोरी कहते हैं.
इस लोरी का साथी है चंद्रमा. जिसे न जाने कैसे और किस संबंध से मां ने अपना भाई कह दिया है और आसमान में खिला चांद भी अपने इस नए संबंध से इतना खुश है कि वह खुशी-खुशी हर बच्चे का मामा बन जाता है. एक और लोरी को बानगी देखिए. इसे सुर साध्वी लता मंगेशकर ने भोजपुरी में गाया था और फिल्म में आने के बाद ये सबसे अधिक सुनी जाने वाली लोरी है.
ए चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा
सोना के कटोरिया में दूध भात लै लै आवा
बबुआ के मुंहवा में घुटूं ।।
आवाहूं उतरी आवा हमारी मुंडेर, कब से पुकारिले भईल बड़ी देर ।
भईल बड़ी देर हां बाबू को लागल भूख ।
ऐ चंदा मामा ।।
लोरी का चमत्कार ऐसा रहा है कि इसे सुनते ही बच्चे नींद के आगोश में चले जाते हैं और फिर उनके सो जाने के बाद माताएं अपने उस भाई को मन ही मन प्रणाम कर धन्यवाद देती हैं, जो आकाश में रहकर भी उनके साथ बच्चे को सुलाने में सहायता कर रहा था. शायद यही वजह रही होगी कि महिलाओं के अधिकतर तीज-त्योहारों का साक्षी चंद्रमा ही है, जिसमें वह उसे देखकर अपना व्रत पूरा करती हैं.
दैनिक जीवन में चंद्रमा की दैवीय मौजूदगी
हमारे दैनिक जीवन में चंद्रमा की यही मौजूदगी उसे दैवीय बनाती है और उसे सूर्यदेव के बराबर स्थान देकर चंद्रदेव कहा गया है. सूर्य अगर दिवाकर हैं तो चंद्र निशाकर हैं. वह रात के राजा हैं, और वेदों में इन्हें सभी औषधियों का स्वामी कहा गया है. वह रसों के देवता हैं. पुष्पों की आत्मा हैं और उड़ने वाले सभी जीवों की चेतना हैं. इसके अलावा धरती पर भी जो बहुत सौम्य और कोमल जीव हैं, उन्हें भी चंद्रमा का संरक्षण मिलता है. इनमें हिरन, खरगोश, मेमने, बछड़े जैसे जीव शामिल हैं. इंद्र और अन्य देवताओं का सबसे प्रिय पेय सोमरस, चंद्रमा की किरणों से मिलकर औषधियों के रसों से बना पेय ही है. इसीलिए वेदों में चंद्र को सोमदेव कहा गया है.
ऋग्वेद में चंद्रमा की उत्पत्ति का जिक्र
चंद्रमा की उत्पत्ति की कहानी सूर्यदेव की उत्पत्ति जैसी है. ऋग्वेद के दशम मंडल में जिस पुरुष सूक्त का वर्णन है, उस विराट पुरुष की कल्पना में ही चंद्रदेव की भी उत्पत्ति का रहस्य छिपा है.
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत,
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च हृदयात्सर्वमिदं जायते.
भावः उस विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा, चक्षु (आंखों) से सूर्य, श्रोत्र से वायु तथा प्राण और हृदय से यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ. विष्णु पुराण की कथा कहती है कि जब कहीं कुछ था ही नहीं, तब उस विराट पुरुष (पुराणों में भगवान विष्णु को पहले विराट पुरुष कहा गया है) की इच्छा से दूध जैसा सफेद एक सागर बना. उस क्षीर सागर में पीपल का पत्ते पर एक अजन्मा शिशु लेटा हुआ था. यह शिशु अपनी ही इच्छा से विकसित होता गया और पूर्ण पुरुष बन गया. उसके चार हाथ थे और सिर पर नागों की छाया थी. उस विराट पुरुष ने आंखें खोलीं तो नेत्रों से निकला प्रकाश सूर्य बन गया और मन से बना चंद्रमा. कानों से ध्वनि और उसकी सांस लेने की इच्छा के कारण ही ब्रह्मांड प्राण वायु से भर गया.
शिव पुराण में सूर्य और चंद्र की उत्पत्ति
शिव पुराण में सूर्य और चंद्रमा की उत्पत्ति का कारण शिव-पार्वती के आनंद तांडव को कहा गया है. जब शिव और पार्वती आनंद तांडव करते हुए एक होने लगे तब शिवजी के नेत्रों से निकली ऊर्जा सूर्य बन गई और देवी पार्वती की कांतिमान देह से चंद्रदेव आकाश में स्थापित हो गए. ब्रह्नवैवर्त पुराण इसकी एक और व्याख्या करते हुए कहता है कि, जब श्रीहरि विष्णु के नाभिकमल पर बैठे ब्रह्मा जी ने आंखें खोलीं तो देखा कि कहीं कुछ भी नहीं है. तब उनके मन में यह भाव जागा कि वह एक हैं और अकेले हैं. वेदों में इसे एको अहं बहुष्यामि कहा गया है, यानी कि ‘एक हूं पर बहुत होना चाहता हूं.’ तब ब्रह्मदेव ने अपने हृदय पर हाथ रखा तो उनके मन से निकलकर एक शीतल पिंड सामने आया. साफ, सफेद और शांति के इस प्रतीक पिंड ने ब्रह्मदेव को बहुत शांति और शीतलता का अनुभव कराया. यही पिंड चंद्रमा बनकर आकाश में स्थापित हुआ.
वेदों में चंद्रमा का वर्णन, जिस तरीके से हुआ है उसमें वह आदित्यों के भाई के तौर पर नहीं दिखाई देते हैं. न ही उनकी गिनती, इंद्र, सूर्य, अग्नि, मित्र, वरुण और रुद्र के साथ होती है, लेकिन सोमदेव के तौर पर उनकी स्तुति जरूर सामने आती है.
भागवत पुराण में चंद्र जन्म की कथा
भागवत पुराण की एक कहानी में चंद्रमा का मनुष्य रूप में अवतार भी बताया गया है. इस पुराण के अनुसार वह ऋषि अत्रि और उनकी पत्नी परम सती अनुसूया के बेटे हैं. उनका जन्म ब्रह्मा के ही अंश से हुआ है. चंद्रमा के जन्म लेने और अवतार की कथा बहुत ही रोचक और विचित्र है. कहानी के अनुसार एक बार देवर्षि नारद विष्णुलोक गए हुए थे. वहां देवी लक्ष्मी के साथ सरस्वती और पार्वतीजी भी मौजूद थीं. इस दौरान तीनों देवियों में नारियों के सती और सतीत्व की चर्चा हो रही थी. इस प्रसंग को लेकर नारद मुनि ने कहा कि धरती लोक में भी सतीत्व का पालन करने वाली स्त्रियां कम नहीं हैं. तब देवियों ने कहा कि किसी एक का नाम ही बता दीजिए, तब देवर्षि ने सती अनुसूया का नाम लिया.
सती अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने पहुंचे त्रिदेव
तीनों देवियों को अपने सतीत्व पर अहंकार हो गया था, इसीलिए उन्होंने ब्रह्मा-विष्णु और शंकरजी को सती की परीक्षा के लिए भेज दिया. त्रिदेव साधु वेश में अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंचे. उस समय ऋषि अत्रि कहीं गए हुए थे. आश्रम में देवी अनुसूया ही थीं. उन्होंने ऋषियों का स्वागत किया और भोजन करने के लिए आग्रह किया. ऋषियों ने उनके सामने शर्त रखी कि हम तभी भोजन ग्रहण करेंगे, जब आप हमें अपने हाथों से स्नान कराकर भोजन कराएंगी. सती अनुसूया ने उनकी बात मान ली और कहा कि ठीक है, आंगन में चलिए. इसके बाद ऋषि पत्नी ने तुरंत ही अपने योगबल से उन तीनों ऋषियों को 6 महीने के नवजात बालकों में तब्दील कर दिया और जैसे मां, बच्चों को स्नान कराती है, वैसे ही स्नान कराया और फिर उन्हें दूध पिलाकर सुला दिया. इस तरह तीनों देव अनुसूया के पुत्र बनकर आश्रम में खेलने लगे. इस तरह वे मानव जीवन के चक्र में बंध गए थे. ऋषि अत्रि आश्रम पहुंचे तो उन्होंने बालकों के दिव्य चिह्न देखकर उन्हें त्रिदेवों के रूप में पहचान लिया तब अनुसूया ने उन्हें सारी बात बताई. ऋषि भी तीनों बालकों को पुत्र मानकर उनका पालन-पोषण करने लगे.
देवताओं ने दिया सती को वरदान
इधर, जब कई दिनों से जब त्रिदेव अपने लोक नहीं पहुंचे तो देवियों को चिंता सताने लगी. वह उन्हें खोजने अत्रि आश्रम पहुंची. सती अनुसूया ने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा. तब देवियों ने बताया कि हमारे पति आपकी परीक्षा लेने आए थे, लेकिन लौटे नहीं. वे कहां हैं? तब अनुसूया ने पालने की ओर इशारा करके कहा, धीरे बोलिए, मेरे छोटे-छोटे बच्चे अभी सो रहे हैं. आप चाहें तो अपने-अपने पति पहचान कर चुन लें. देवियों ने जब पालने में झांका तो चकित रह गईं, त्रिदेव नवजात शिशुओं में बदले हुए थे. तब देवियों ने सती अनुसूया को परम सती माना और उनकी स्तुति कर त्रिदेवों को इस बंधन से मुक्त करने की विनती की. सती अनुसूया ने अपना योगबल खींच लिया और त्रिदेव अपने असली रूप में वापस आ गए. उन्होंने सती अनुसूया को कई वरदान दिए और उनसे मिले मां के वात्सल्य और प्रेम का मान रखते हुए, अपने-अपने अंश से एक-एक बालक उसी शिशु रूप में छोड़ गए.
ब्रह्मा के अंश से हुआ चंद्रमा का जन्म
इनमें ही ब्रह्मा जी के अंश से चंद्रमस का जन्म हुआ, शंकरजी का अंश दुर्वासा कहलाया और भगवान विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ. चंद्रमस ने ही बड़े होकर वेद-वेदांत और सभी शास्त्रों का अध्ययन किया, इसके बाद 1000 वर्षों की कठोर तपस्या की. इस तपस्या से उन्हें कई सिद्धियां मिलीं. ब्रह्नदेव ने उन्हें ऐश्वर्य का वरदान दिया और इसी ऐश्वर्य के वरदान से वह चंद्रलोक के अधिपति बने और चंद्रमा कहलाए.
सागर मंथन की कहानी
चंद्रमा की उत्पत्ति की एक कहानी जो सबसे अधिक प्रसिद्ध और आम है, वह है समुद्र मंथन. समुद्र मंथन की कहानी का जिक्र, लगभग हर पुराण में हुआ है. इस आध्यात्मिक कथा का सीधा सा मतलब तो यही है कि समुद्र को मथा गया. ठीक उसी तरह जैसे दही को मथने पर उससे सबसे शुद्ध माखन मिलता है और माखन से घी. ठीक इसी तरह समुद्र को मथकर उससे कई रत्न निकाले गए. इसमें सबसे पहले विष निकला और आखिरी में अमृत. ये कहानी अपने दूसरे रूप में विचारों के मंथन की है.
ऋषि दुर्वासा का इंद्र को श्राप
सागर मंथन की कहानी ऋषि दुर्वासा के श्राप की वजह से सामने आती है. एक बार ऋषि दुर्वासा ने देवराज इंद्र को सुगंधित फूलों की एक माला भेंट की. देवराज ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रख दिया. सुगंध से मतवाले हुए हाथी ने माला को उठाया और फेंका और पैरों से कुचल दिया. ऋषि दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और इंद्र जो कि एक युद्ध में विजेता होने के कारण अहंकारी हो गया था, उसे श्राप दिया कि तुम अपना सारा ऐश्वर्य खो दोगे और लक्ष्मीहीन हो जाओगे. दुर्वासा के इस श्राप के कारण देवलोक की सारी निधियां लुप्त हो गईं और खुद लक्ष्मी भी विलीन हो गईं. देवताओं का तेज कम होते ही असुर राज बलि ने उन पर आक्रमण कर दिया और स्वर्ग को जीत लिया.
समुद्र से निकले 14 रत्न
तब, भगवान विष्णु ने देवताओं की प्रार्थना पर फिर से उनके उत्थान के लिए सागर मंथन का सुझाव दिया, लेकिन सागर मंथन न तो देवताओं के अकेले के बस की बात थी और न ही असुरों के लिए. इसलिए देवों और असुरों में एक समझौता हुआ, जिसके तहत सागर मंथन होना तय हुआ. इसी सागर मंथन से पहले विष निकला, जिसे शिवजी ने पिया फिर एक-एक करके कई रत्न निकले. इन रत्नों की संख्या 14 है. इसके लिए भागवतपुराण में एक श्लोक है, जिसमें सभी 14 रत्नों के नाम का जिक्र है.
लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः,
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः.
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः,
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्.
1. कालकूट (हलाहल) विषः शिवजी ने पिया
2. ऐरावतः इंद्र का वाहन बना
3. कामधेनुः ऋषियों को भेंट दी गई.
4. उच्चैःश्रवाः असुरों को मिला, लेकिन बाद में हुए एक युद्ध में देवताओं ने जीत लिया.
5. कौस्तुभ एवं पद्मराग मणिः भगवान विष्णु को मिली, कंठहार में जड़ी गई.
6. कल्पवृक्षः स्वर्ग के बागीचे में लगा
7. रम्भा नामक अप्सराः स्वर्ग में इंद्र सभा को मिली
8. महालक्ष्मीः देवी लक्ष्मी ने खुद श्रीविष्णु का वरण किया
9. वारुणी मदिराः असुरों को मिली
10. चन्द्रमाः देवलोक में गए, चंद्रलोक के अधिपति
11. शारंग धनुषः भगवान विष्णु का धनुष
12. पांचजन्य शंखः भगवान विष्णु का शंख
13. धन्वन्तरिः देवताओं के वैद्य
14. अमृतः देवताओं को मिला
हिंदी में एक दोहा भी है, जिसमें 14 रत्नों के नाम दर्ज हैं.
श्रीरंभा विष वारुणि, अमीय शंख गजराज,
धन्वंतरि धनु धेनुः, मणि चंद्रमा तरु बाज।
देवी लक्ष्मी के भाई हैं चंद्रमा
14 रत्नों में चंद्रमा, लक्ष्मी और आखिरी में अमृत भी शामिल था. समुद्र से जन्म लेने के कारण ही चंद्रमा को ज्योतिष में जल तत्व से निर्मित बताया जाता है. समुद्र मंथन में देवी लक्ष्मी के साथ निकलने के कारण चंद्रमा, सागर के पुत्र और लक्ष्मी जी के भाई कहे जाते हैं. खुद लक्ष्मी जी भी सिंधुसुता कहलाती हैं. इसी तरह शंख भी देवी लक्ष्मी और चंद्रमा का भाई है. इसीलिए लक्ष्मी जी की पूजा में शंख नहीं बजाया जाता है, लेकिन विष्णुपूजा में शंख बजाया जाता है. लोकमानस में इसे जीजा-साले के बीच प्रचलित मजाक की तरह लिया जाता है.
शरद पूर्णिमा क्यों मनाते हैं
अमृत के साथ निकलने के कारण ही चंद्रमा अमृत से सना हुआ माना जाता है और ऐसी मान्यता है कि चंद्रदेव की किरणों में अमृत बरसता है जो खुद में एक औषधि है. सनातन परंपरा में चंद्रदेव की किरणों को समर्पित एक त्योहार सदियों से मनाया जाता रहा है. इसे शरद पूर्णिमा कहते हैं. इस पर्व में पूर्णिमा की चांदनी रात में खीर बनाकर चांदनी रात में रखने का रिवाज है. मानते हैं कि इस दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ आसमान में खिलता है और धरती के बेहद करीब भी होता है और उसकी चांदनी वाली शीतल किरणों के सहारे अमृत खीर में गिरता है और खीर को एक औषधि में बदल देता है. ये खीर कई रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली, पौष्टिक, बुद्धि बढ़ाने वाली और रूप-लावण्य को बढ़ाने वाली होती है.
सौभाग्य का साक्षी और वात्सल्य का प्रतीक
अपनी इस दिव्यता, कोमलता और देवी लक्ष्मी का भाई होने का कारण ही चंद्रमा सहजता के साथ भारतीय जनमानस में घुला-मिला सा है. भारतीय परिवार परंपरा में गृहणी भी लक्ष्मी का रूप मानी जाती है, इसलिए वह चंद्रदेव को आसानी से अपना भाई मानते हुए उन्हें अपने बच्चों का मामा कह देती हैं. प्राचीन काल से लेकर आज तक सूर्य और चंद्रमा जनमानस के लिए प्रत्यक्ष देवता हैं. जब दिन होता है तो सूर्य देव ऊर्जा देते हैं और जब रात हो जाती है तो चंद्रदेव प्रकाश के साथ ही शीतलता प्रदान करते हैं. वैदिक साहित्य भी यह कहते हैं कि चंद्रमा की उत्पत्ति इसलिए हुई कि रात के अंधकार में पाप न हो सके. चंद्रमा शुद्ध प्रेम का प्रतीक है. वह रिश्तों और संबंधों की गंभीरता का सूचक है. यही वजह है कि ज्योतिष विधा भी चंद्रदेव को दांपत्य का आधार मानते हैं. कभी यह चंद्रमा सौभाग्य का साक्षी बन जाता है तो कभी यही चंद्रदेव संतान के लिए मानी गई मनौतियों को ईष्ट तक पहुंचाने का जरिया बन जाते हैं.
नवग्रह मंत्र में दूसरा मंत्र चंद्रमा के लिए गाया जाता है.
दधिशंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवं
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणं.
मैं चंद्र देव को प्रणाम करता हूँ, जिनका रंग दही और शंख जैसा सफेद है. मैं उन्हें नमन करता हूं जो दूध के समान समु्द्र से उत्पन्न हुए हैं. मैं शशि और सोम को प्रणाम करता हूं जो भगवान शिव के मुकुट की तरह उनके मस्तक पर शोभित हैं.
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